ऐसे विज्ञापन का क्या मतलब?
कोई निर्वाचित सरकार ज्यादातर राज्य के बाहर प्रसारित होने वाले किसी अखबार में पहले पन्ने पर आधे पन्ने का ऐसा विज्ञापन छपवाए और वह भी चुनाव की घोषणा से पहले तो यह उसकी हताशा के अलावा और कुछ नहीं है। पर यहां मुद्दा यह है कि ऐसा दावा करने का आधार क्या है? आप सरकार में हैं तो कुछ भी दावा करेंगे या कोई आधार होगा? वैसे तो आरोप यह भी है कि इस विज्ञापन के जरिए धर्म विशेष के व्यक्ति को दंगाई बताने की कोशिश की गई है और मुझे लगता है कि बिना आधार वाले इस विज्ञापन का मकसद यही है। वरना यह कोई दावा नहीं है कि कोई बहुमत वाली निर्वाचित सरकार करे।
उत्तर प्रदेश में काम कर चुके रिटायर पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय की पुस्तक सांप्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस की भूमिका में कहा है, …. दंगों से जूझने वाले पुलिसकर्मी लड़ने वाले समुदायों में से किसी एक के सदस्य होते हैं। बिना किसी पक्षपात के शुद्ध पेशेवराना तरीके से सांप्रदायिक दंगों को कुचलना और संघर्षरत दोनों समुदायों का विश्वास अर्जित करना उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती होता है।
ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार के इस विज्ञापन में यह दावा किसका है? उस मुख्यमंत्री का जिसने अपने खिलाफ मुकदमे वापस ले लिए? जिसकी सरकार ने अपने खिलाफ कार्रवाई करने वाले एक आईपीएस अधिकारी को नौकरी से निकाल दिया, जेल में डाल दिया। क्या मतलब है ऐसे दावे का? कहने की जरूरत नहीं है कि दंगे तभी होंगे जब एक पक्ष दूसरे को मुकाबले का समझेगा वरना मारा जाएगा। अभी होता यही है कि जो मारा जाता है वही मुकदमे में फंसाया जाता है। भले ही बाद में बरी हो जाए। उसके बाद भी यह शर्मनाक दावा।
यह दिलचस्प है कि विभूति नारायण राय की उपरोक्त पुस्तक की चर्चा करते हुए सिब्बल चटर्जी ने आउटलुक में लिखा था और यह पुस्तक के कवर पर है कि, गृहमंत्रालय और पुलिस ब्यूरो ऑफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट तथा अपने सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों के विस्तृत विश्लेषण पर आधारित यह शोध बताता है कि प्रत्येक दंगे के 80 प्रतिशत शिकार मुस्लिम होते हैं और जो लोग गिरफ्तार किए जाते हैं उनमें भी लगभग 90 प्रतिशत अल्पसंख्यक ही होते हैं। श्री राय के अनुसार, यह तर्क विरुद्ध है। अगर 80 प्रतिशत शिकार मुस्लिम हैं तो होना यह चाहिए कि गिरफ्तार लोगों में 70 प्रतिशत हिन्दू हों। लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है।
उत्तर प्रदेश सरकार के पैसे से दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार में दंगों का (नहीं दंगाइयों का) खौफ खत्म होने और माफी मांगने का दावा किया जाए तो दिल्ली के दंगों की चर्चा कर लेना भी लाजमी रहेगा। आपको याद होगा, दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले दिल्ली में भी दंगे हुए थे। उत्तर प्रदेश में जो हुआ था उसकी चर्चा जान बूझकर नहीं की है ताकि जो हो रहा है उसकी चर्चा ज्यादा की जाए।
दिल्ली दंगों का सच पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित पुस्तक है। यह दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की जांच रिपोर्ट का हिन्दी अनुवाद है ताकि आम लोग पुलिस द्वारा प्रायोजित खबरों के दूसरे पहलू को भी जान सकें। अनुवाद स्थापित अनुवादकों का है। इसमें कहा गया है, पुलिस का इतना सांप्रदायिक, एकपक्षीय और झूठा स्वरूप कभी नहीं देखने को मिला – स्पेशल सेल में पूछताछ के लिए बुलाए जा रहे अधिकांश लोग यह कहते पाए गए कि लगता ही नहीं है कि कोई पुलिस वाला सवाल जवाब कर रहा है – लगता है कि कोई दंगाई खुद को बेगुनाह साबित करने को आरोप लगा रहा है। अभी तक की जांच में पुलिस स्थापित कर रही थी कि दिल्ली में नागरिकता कानून के किलाफ 100 दिन से चल रहे धरनों में ही दंगों की कहानी रची गई।
वैसे भी नागरिकों की जान दंगों में जाए या महामारी में या इलाज के अभाव में – फर्क क्या पड़ता है। हरेक के पीछे सरकारी लापरवाही ही है। दंगे रोकने का दावा करने का क्या मतलब है जब लाखों लोग महामारी में मर चुके हैं। और उसे छिपाने के लिए श्मशान की दीवार ऊंची करानी पड़ी थी। अपराध की खबर न छपे इसके लिए पत्रकारों को झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है तो ऐसे विज्ञापनों से चुनाव भले जीत लिया जाए यह कितना अनैतिक है यह कौन बताएगा? कहने की जरूरत नहीं है कि दंगे रोकने और अगर हो जाएं तो निष्पक्ष कार्रवाई की जाए उस दिशा में कुछ किया गया होता तो उसे बताना लाजमी था। पर यह दावा तो निराधार है।
फोटो ध्यान से देखिए और समझने की कोशिश कीजिए
दंगाई जिन कपड़ों में “वांटेड” (पीछे) था उन्हीं कपड़ों में मिल गया? या कुछ और खेल है? 2017 से पहले सब ‘काला’ था बाद में बहुत कुछ ‘भगवा’ हो गया है।
संजय कुमार सिंह
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