डीजिटल खा गया अख़बारों का चुनावी विज्ञापन जो नहीं दिखा वो नहीं बिका
बदलाव वक्त की फितरत भी है और ज़रुरत भी। लखनऊ के चौक के कोठों की तहज़ीब का ज़माना गया, आईपीएल की चेयर गर्ल का दौर शुरु हो गया। मनोरंजन का माध्यम भांड होते थे, अब कपिल शर्मा शो जैसे तमाम कामेडी शो आपका मनोरंजन करते हैं।
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पहले सिर्फ अखबार और टीवी मीडिया के नाम पर दूरदर्शन होता था। फिर सेटेलाइट न्यूज़ चैनलों की बाढ़ आ गई। और अब मीडिया पर सोशल मीडिया हावी होने लगा। डीजिटल मीडिया/वेबमीडिया ने तो सोशल मीडिया को बहुत बड़ी ताकत दे दी। इस दौरान अखबार खत्म तो नहीं हुआ और न ही होगा लेकिन परिवर्तन के दौर में अखबारों के समुंद्र का पानी कम करने के लिए बदलाव का सूरज आंखें फाड़ने लगा है। छोटे अखबारों को प्राइवेट सेक्टर कभी मुंह नहीं लगाता था, सरकारें सब्सिडी या आर्थिक सहयोग की नियत से सरकारी विज्ञापन देती रही हैं। लेकिन पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ को लेकर सरकारों ने भी अपनी नजरें टेहढ़ी करना करना शुरु कर दी हैं।
चुनाव छोटे अखबारों की भी सबसे बड़ी सहालग होते थे, पर मौजूदा चुनाव में प्रचार माध्यम के चुनाव में इस बार छोटे अखबारों को लगभग शामिल ही नहीं किया गया। इस चुनाव में प्रचार के रणनीतिकारों ने जो दिखता है वो बिकता है कि तर्ज और सच्चाई पर अमल करते हुए दिखने वाले अखबारों और चैनलों को विज्ञापन दिए जाने का निर्णय लिया है।
बड़ा बजट सोशल मीडिया, डीजिटल/वेब मीडिया पर खर्च किया जा रहा है। यूट्यूब चैनल और वेबसाइट्स के बढ़ते दौर में अखबारों की संख्या में जितनी बड़ी बाढ़ डीजिटल मीडिया की आ गई। पचास सालों में प्रिंट मीडिया से ज्यादा बड़ा सैलाब पांच सालों से डीजिटल मीडिया का आ गया। कीड़े-मकौड़ों की तरह वेबसाइट/और यूट्यूब चैनल की आईडी नजर आने लगी। किंतु चुनावी प्रचार के चयन में वही डीजिटल/सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म चुने गए जो दिखते हैं। कम से कम दो-चार लाख तक की पंहुच वाले डीजिटल प्लेटफार्म से लेकर मिलियन रीच वाली वेबसाइट/यूं ट्यूब चैनल्स इस बार के चुनाव प्रचार के सबसे बड़े माध्यम बनें। और इसमें भी पारंपरिक विज्ञापन दिखाए जाने के बजाए मनचाहा कंटेंट दिखाने का सौदा हुआ।
टीएन शेषन चुनाव आयोग के स्वर्णकाल थे। उनसे पहले चुनावों में प्रत्याशी गांव-गांव, गली-गली दारूबाजों को खुलेआम शराब बांटते थे। सरेआम और खुलेआम ऐसे अपराध के खिलाफ संख्तियां हुईं तो सोबर तरीके से वोटर को प्रभावित करने के बहाने ढूंढे गए। बहुत सारे तरीकों में मतदान से पहले रक़म देकर खुश करने का माध्यम विज्ञापन के नाम पर जेब गरम करना एक खूबसूरत बहाना रहा। आम इंसान जितने अखबारों को जानता है, देखता है, पढ़ता है, उससे हजार गुना ज्यादा अखबार रजिस्ट्रर्ड हैं।
चुनाव मीडिया की सबसे बड़ी सहालग होती है। जैसे दीपावली में टाटा,अंबानी, छंगामल से लेकर फुटपाथ पर दीए बेचने वाला भी कमाता है वैसी ही चुनाव में चैनलों, बड़े अखबारों के अलावा देश के हजारों-लाखों छोटे पत्र-पत्रिकाओं को भी लोकतंत्र के पर्व चुनाव में कमाने का मौका मिलता रहा है। ये जानकर भी इन पत्र-पत्रिकाएं का कोई वजूद नहीं, इन्हें कोई नहीं पढ़ता, ये कहीं नजर नहीं आते, इनका वास्तविक प्रसार कुछ भी नहीं.. ये सब समझ कर भी राजनीतिक दल हजारों अखबारों को विज्ञापन के बहाने पैसा बांट दिया करते थे।
इस बार ऐसा नहीं हुआ। वजह ये भी रही कि बड़ा बजट दिखने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर खर्च कर दिया गया। सिर्फ बीजेपी ने उन छोटे अखबारों को ही बहुत कम दरों पर विज्ञापन दिया है जो डीएवीपी हैं।
बाकी कांग्रेस, बसपा, सपा ने छोटे अखबारों को अभी तक कुछ भी नहीं दिया। छोटे उर्दू अखबारों को तो भाजपा ने भी अपनी विज्ञापन सूची में शामिल नहीं किया। यूपी के उर्दू अखबारों के प्रकाशक सपा से उम्मीद कर रहे थे, लेकिन बताया जाता है कि यहां फिलहाल अभी तक एक भी छोटे उर्दू अखबार को चुनावी प्रचार का विज्ञापन नहीं मिला। विज्ञापन मिलना तो दूर सपा कार्यालय में विज्ञापन मांग का प्रपोजल लगाना भी मुश्किल रहा। पब्लिशर बताते हैं कि सपा कार्यालय के गेट के अंदर घुसने की भी पाबंदी है।
वरिष्ठ पत्रकार नवेद शिकोह
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