लखनऊ के पत्रकार मुईज़ ख़ान नहीं रहे। सोमवार को ऐशबाग के क़ब्रिस्तान में वो सिपुर्द-ए-ख़ाक कर दिए गए। आवाज़ और क़द काठी में बुलंद ख़ान साहब की चर्चाएं भी तीन दशकों तक पत्रकारों के चौपालों में किसी ना किसी रूप में बुलंद रहीं। ज़िन्दा दिली से भरी उनकी बातें लखनऊ के मीडिया सेंटर की रौनक हुआ करती थी। पुरानी एनेक्सी के मीडिया सेंटर से लेकर विधानभवन का प्रेस रूम हो या लोकभवन का पत्रकार कक्ष हो, हर दौर में हर जगह उनकी उपस्थिति और दिलचस्प बातें भीड़ से उन्हें अलग बनाती थीं। विवादों से उनका चोली दामन का साथ था। लेकिन किसी विवाद से ना वो हारे और ना ही ताउम्र उन्हें कोई हरा सका। नौ जनवरी सोमवार की सुबह मौत ज़रूर उनकी जिंदगी को हराने में कामयाब रही।
उनका ताल्लुक प्रिंट मीडिया से रहा। एक जमाना था जब डिजिटल मीडिया का नामों निशान नहीं था, दूरदर्शन के अलावा सेटेलाइट चैनल्स सिर्फ दो-तीन ही थे। मीडिया में प्रिंट मीडिया का एकक्षत्र राज चलता था। राष्ट्रीय सहारा अखबार नया-नया शुरू हुआ था और शुरू होते हैं टॉप थ्री अखबारों में शामिल हो गया था। ख़ान साहब के साध्य समाचार पत्र का नाम सहारा से मिलता जुलता था। उनके इवनिंग अखबार का लोगो और मास्टर हेड भी सहारा जैसा था। सनसनीखेज खबरों वाला ये इवनिंगर खूब बिकने लगा। और फिर इस अखबार से राष्ट्रीय सहारा और लखनऊ का प्रशासन (जिलाधिकारी और एस एस पी) परेशान हो गया था। सहारा ग्रुप को ये शिकायत थी कि इस सांध्य समाचार पत्र का नाम, मास्टर हेड, लोगो व फोंट राष्ट्रीय सहारा अखबार जैसा हैं इसलिए लोग इसे सहारा ग्रुप का समझकर इसपर विश्वास करते हैं। सहारा इस बात को लेकर कोर्ट तक चला गया था। और लखनऊ प्रशासन की शिकायत रहती थी कि खान साहब के अखबार में सनसनीखेज खबरें होती हैं। शाम को ये अखबार मार्केट में आते ही पुराने लखनऊ में तनाव पैदा हो जाता है। उन दिनों पुराने लखनऊ में शिया-सुन्नी विवाद होता प्रशासन की नींदें हराम किए रहता था। और आएदिन कर्फ्यू लगता था।
ऐसे ही दर्जनों किस्सों की यादें ख़ान साहब की याद दिलाती रहे़गी। उ प्र राज्य मुख्यालय संवाददाता समिति के पिछले चुनाव में वो अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार थे। शहर के ख़ास चौराहों पर उनकी होल्डिंग्स लगी और उन्होंने खूब दमदार तरीक़े से चुनाव लड़ा। नतीजा आया जो उन्हें पांच-सात वोट भी नहीं मिले। चुनाव बाद मिले तो गुस्से में बोले कि दुर्भाग्य कि हर चुनाव धर्म-जाति पर आधारित होता है। लोग अपने-अपने धर्म या जाति के लोगों को वोट देते हैं। लेकिन मेरा महा दुर्भाग्य कि यहां तो मुस्लिम पत्रकारों ने भी मुझे वोट नहीं दिया। क़रीब सवा सौ से ऊपर राज्य मुख्यालय मान्यता प्राप्त मुस्लिम पत्रकार हैं। अध्यक्ष पद के लिए मैं अकेला मुस्लिम उम्मीदवार था। लेकिन मुझे दस मुस्लिम वोटरों ने भी वोट नहीं दिया।
मैंने उनसे कहा कि बस यहीं आप जीत गए। आप ने साबित कर दिया कि मुसलमान कभी भी प्रत्याशी का धर्म देखकर वोट नहीं देता। इतनी बड़ी दलील आपके चुनावी नतीजे ने प्रमाणित कर दी।
मेरा ये तर्क सुनकर ख़ान साहब का चेहरा खिल गया, बोले तब मेरा हारना बड़ी जीत है।
खिराजे अकीदत
– नवेद शिकोह
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