संदर्भ–चित्रा त्रिपाठी..
मीडिया के आत्ममंथन का दौर …
भारत के मेन स्ट्रीम मीडिया को जितनी जल्दी हो सके आत्मचिंतन आरंभ कर देना चाहिए। जितनी जल्दी हो पूंजीवादियों की रखैल बन चुके मेन स्ट्रीम मीडिया में कार्यरत लोग एकजुट होकर अपने मालिकान को बोल सकें कि जो आप चाहोगे हम वही दिखाएंगें और प्रकाशित करेंगे, यह अब संभव नहीं है। हालांकि, यह आसान नहीं है यह वैसे ही है जैसे भागीरथ द्वारा गंगा को धरती पर लाना। भारत का मीडिया वर्तमान में अपने सबसे छिछले व निचले पायदान के भी नीचे सरक चुका है। चैनलों ने तो पूरे देश में गंध मचा कर रखी है। एक आईडी और एक सवा लाख का कैमरा कंधे पर लटका कर परमज्ञानी की भूमिका में टहलता हुआ संवाददाता और मेकअप के बाद लाइट-कैमरा-एक्शन के बाद तथाकथित रूप से बौद्धिक हुई जाती “खबराग्नाओं” ने पत्रकारिता को धूलधूसरित कर रखा है। चिंघाड़ टाइप एंकरिंग, नाले के किनारे कि किसी बस्ती की औरतों की तरह “खौखियाती” हुई डिबेट और डिबेट के कमोबेश वही चंद सब्जेक्ट्स.. हिंदू, मुस्लिम, गाय, पाकिस्तान और अब नया शिकार अफगानिस्तान….। जनता के सरोकारों से पूरी तरह कट चुका भारत का मेन स्ट्रीम मीडिया वर्तमान में विश्वनीयता के गंभीर संकट से गुजर रहा है। हालात यह हो चुके हैं कि लोग न्यूज चैनलों को न्यूज चैनल कम “कपिल शर्मा शो” या “इंडियन लाफ्टर चैलेंज” टाइप के शो की तरह देखने लग गये हैं। ऐंकर चित्रा त्रिपाठी, ऐंकर मैं थक जाती हूं आप थकते क्यूं नहीं हैं जैसा अभूतपूर्व सवाल दागने वाली ऐंकर रूबिका लियाकत, हिमेश रेशमिया की तरह हाथ लहराकर 2000 की नोट में चिप खोज कर सिग्नल सीधे सेटेलाइट को प्रेषित करने वाली मूर्धन्य ऐंकर कम रिपोर्टर श्वेता सिंह, तिहाड़ से गौरवान्वित होकर लौटे सुधीर चौधरी, हमको चरस दे, गांजा दे, एलएसडी दे, स्मैक दे, ब्राउन शुगर दे…मांगने वाले वानर प्रजाति ऐंकर अर्नव गोस्वामी, फायर फाइटर्स का सूट पहनकर मंगलग्रह पर प्लाट बेचने वाला ऐंकर दीपक चौरसिया, आढ़तियों की तरह चीखता अमीश देवगन, पीपल का भूत और नाले के किनारे वाली चुड़ैल भौजाई दिखाकर चैनल खड़ा करने वाला ऐंकर रजत शर्मा……एक लंबी-चौड़ी लिस्ट है… जो चौबीसों घंटे अपने ही हाथों में चप्पल लेकर पत्रकारिता को “चप्पलियाते” रहते हैं। ये वो मनीषी हैं जिन्होंने पूरी मीडिया का मजाक बना कर रख दिया है। एक बार भी इन पत्रकारों को अपने मंहगाई, रोजगार, अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, कालाधन, नोट बंदी, अरबों-खरबों के बैंक लोन के राइट आफ, चीन और भारतीय सीमा के सच पर एक भी सवाल करते हुए नहीं सुना होगा न ही देखा होगा। बड़े अखबारों की दशा भी ऐसी ही है। सबको मोटा विज्ञापन चाहिए और मालिकों की इंडस्ट्रीज बिना अड़ंगे के चलती रहे…यह सुरक्षा चाहिए। व्यापारी केवल और केवल अपने मुनाफे की चिंता करता है, उससे मानवीय संवेदनाओं व उनके सरोकारों से बहुत ज्यादा कुछ लेना-देना होता नहीं है। लेकिन मीडिया व्यापार नहीं है जिसे मौजूदा समय में एक घटिया व विशुद्ध व्यापार के रूप में तब्दील किया जा चुका है।
चित्रा त्रिपाठी जैसी एंकरों पर क्या टिप्पणी की जाए लेकिन इसके बहाने से यह लिख सकता हूं कि मीडिया का यही हाल रहा तो एक दिन चैनलों को अपनी OB वैन पुलिस सुरक्षा में लेकर चलनी होगी। भूखी-प्यासी-नंगी भीड़ PRESS लिखा देखकर और आईडी-माइक देखकर टूट पड़ेगी…. चित्रा तो किसानों के गुस्से का एक प्रतीक भर बनीं…किसानों ने न कोई अभद्रता की और न ही किसी ने उसे छुआ… बल्कि गोदी मीडिया गो बैक के नारे लगे….। किसान आंदोलन को मेन स्ट्रीम मीडिया ने जगह ही नहीं दी। 800 से ज्यादा किसान मर गये एक सवाल नहीं? ख़बरें दिखाईं भी तो ये कि किसान पिज्जा खा रहे हैं…क्या पिज्जा खाने का पेटेंट केवल इलीट क्लब का ही है? जो किसान पिज़्ज़ा के लिए अनाज उत्पादन करता है उसका हक नहीं है?….एक सवाल नहीं उठाया कि मंडियां खत्म होने के बाद किसान ठगा नहीं जाएगा? बिहार का किसान कैसे तबाह हुआ..? भंडारण की लिमिट खत्म हो जाने के बाद क्या किसान और उससे ज्यादा आम उपभोक्ता मंहगाई से मारा नहीं जाएगा…सरसों का तेल, गेंहू के दाम, दाल…सभी के रेट चढ़े हुए हैं? एफसीआई जैसी संस्था को किसके लाभ के लिए तबाह किया जा रहा है? किसान कहां आवाज उठाएगा…? उस जैसे सिरफिरे एसडीएम के सामने जो किसानों के सिर फोड़ने का ऐलान करता है? जनता जब उठती है तो वो सबके चित्र अपने हिसाब से बनाने की कूबत रखती है। मीडिया को लेकर लोगों में गुस्सा बढ़ रहा है और जिन मूर्धन्य ऐंकर/पत्रकारों को लगता है कि लोग न्यूज के खेल को समझते नहीं हैं वो बहुत बड़ी गलतफहमी में जी रहे हैं। समय अभी भी है भूल सुधार की जा सकती है। एक होकर अपने मालिकों को बता दीजिए कि आपके हितों के लिए हम बेईज्जत नहीं होंगे…कर दीजिए हड़ताल… बंद कर दीजिए एक माह के लिए प्रसारण और प्रकाशन लेकिन मीडिया की गरिमा वह उसकी इज्जत वापस ले आईए। मालिकों की ज़हर खुरानी से अच्छा है लड़ना ….
(पवन सिंह)
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