पत्रकारिता की ड्योढ़ी से विदा होकर सियासी आंगन जा रहे पत्रकार
जुबान और क़लम में जादू होता है। पत्रकारिता के ये दो टूल सियासत को मुफीद लगने लगे हैं। बाजार मे आ चुकी पत्रकारिता के दाम लगाने में सियासत कभी कंजूसी नहीं करती।
अब उसकी मर्ज़ी कि पत्रकारिता का हुनर वो जायज़ तौर से इस्तेमाल करे या नाजायज तौर से। हांलाकि पत्रकार जब किसी पार्टी से जुड़ जाए तो वो पत्रकार तो नहीं रहेगा। वैसे ही जैसे कोई युवती ब्याहने के बाद कुंवारी नहीं कही जा सकती। पार्टी ज्वाइन करने के बाद पत्रकारिता के सिद्धांत, संतुलन, निष्पक्षता.. सब कुछ असंतुलित हो जाना लाजमी है। लेकिन कलम, कैमरा और जुबान का हुनर तो असर करेगा ही। राजनीति चाहती है कि आम जनता अपना गम, दुख-दर्द और जरुरतें भूल कर एक आभासी दुनिया मे जिए। जज्बातों का धतूरा और धर्म-जाति, मसलक की अफीम सच के अहसास से दूर रखे। कलम और जुबान के मजबूत हथियारों की पत्रकारिता का बेजा इस्तेमाल यानी सिद्धांतहीन कलम और जुबान देसी नीट दारू का काम करती है। ये अद्भुत दारू आम जनता के जिस्म मे एक ऐसा कैमिकल लोचा पैदा करती है जो पेट की भूख का अहसास भी न होने देती।
पहले देश में सियासत होती थी, अब सियासत में देश है। कोई भी आम-ख़ास इंसान हो..कोई भी पेशेवर हो, हर किसी नागरिक पर मीडिया-सोशल मीडिया के जरिए राजनीति इतनी हावी कर देने का दौर हो गया है कि किसी का खुद का कोई अस्तित्व, पेशा या पेशेवर ज़िम्मेदारियां नहीं रही, हर कोई किसी न किसी पार्टी के कार्यकर्ता के तौर पर पेश आ रहा है। कोविड और तमाम परेशानियों के बीच मंहगाई, गरीबी और बेरोजगारी से जूझ रहे हर वर्ग की तरह पत्रकारिता का पेशा भी बेरोजगारी से अछूता नहीं रहा, लेकिन अच्छी बात है कि पत्रकारों को बारामासी सियासी सहालग ने रोजगार देना जारी रखा है। हर रोज खबर आ रही है कि रोज दो-चार पत्रकार पत्रकारिता के पीहर की ड्योढ़ी से विदा होकर सियासत के आंगन जा रहे है।
इधर अखबारों के एडिशन खूब बंद हुए। कॉस्ट कटिंग और छट्नी हुई। खूब लोग निकाले गए। बड़े बड़े चेहरों तक को न्यूज चैनलों से निकाल दिया गया। बेरोजगारी के इस दौर में राजनीतिक दलों ने खूब सहाफियों को सहारा दिया। इस वक्त प्रदेश में हजारों कलमकार प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से दल़ो की आईटी सेल में पेशेवर तरीके से काम कर रहे हैं। थोक के हिसाब से यूपी के पत्रकारों को राजनीति दलों में प्रवक्ता/टीवी पैनलिस्ट के लिए छांटा-बीना जा रहा है।
पत्रकार का मुखौटा लगाकर किसी भी दल के कार्यकर्ता/प्रवक्ता के रूप में छुप कर काम करने से अच्छा है कि पत्रकार पत्रकारिता छोड़कर खुल कर किसी का प्रवक्ता बन कर काम करे।
– नवेद शिकोह
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