क्या वाकई व्यवधान से व्यथित हैं लोकसभा स्पीकर और राज्य सभा के सभापति?
सदन का अध्यक्ष सदन का होता है। सरकार का नहीं होता है। अगर सदन नहीं चल पाता है तो सदन के अध्यक्ष का व्यथित होना लाजमी है। उनके दुख पर भरोसा किया जाना चाहिए। इसी के साथ इस बात का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए कि दोनों की व्यथा किसकी तरफ लक्षित है। क्या उस सरकार की तरफ भी लक्षित है जिस पर सदन चलाने की जवाबदेही है?क्या उस व्यथा से सरकार की नाकामी झलकती है? दोनों सदनों के आदरणीय अध्यक्षों को यह नोट करना चाहिए कि उनकी चिन्ता का एक पक्षीय इस्तमाल होने लगा है। उनके आंसुओं का इस्तमाल सरकार विपक्ष के ख़िलाफ़ कर रही है। गोदी मीडिया भी इसी तरह पेश कर रहा है। ऐसे में दोनों सदन के अध्यक्षों का नैतिक दायित्व बनता है कि उनकी हर बैठक की सूचना आधिकारिक ज़रिए से सार्वजनिक हो न कि सूत्रों के हवाले से। यह बहुत ज़रूरी है तभी जनता समग्र रुप से देख पाएगी कि दोनों की चिन्ताओं में दोनों पक्षों की भूमिका शामिल है या केवल विपक्ष की भूमिका शामिल है? सूत्रों से जारी ख़बरों में हमेशा अविश्वसनीयता का तत्व होता है और खंडन करने की संभावना रहती है और उसका एकपक्षीय मतलब निकाला जा सकता है।
यह भारत के लोकतंत्र का बेहद नाज़ुक मोड़ है।इस मोड़ पर दोनों सदनों के अभिभावकों की भूमिका और अधिक नाज़ुक और संवेदनशील हो जाती है। उन दोनों की जवाबदेही है कि अपनी चिन्ता इस तरह से सार्वजनिक करें कि उसका इस्तमाल न सरकार अपने हक में कर सके और न विपक्ष, वर्ना दोनों के आरोप-प्रत्यारोप में सदन की गरिमा के प्रहरी किसी एक पक्ष की तरफ नज़र आएंगे, जो उनकी चिन्ता के आलोक में अच्छा नहीं होगा। इसलिए दोनों अभिभावकों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि मानसून सत्र के न चलने में सरकार की कितनी ज़िम्मेदारी है? सरकार क्या कर सकती थी जो उसने नहीं किया? यह स्पष्टता बहुत ज़रूरी है। जनता समझ रही है कि मानसून सत्र का संकट एकतरफा नहीं है।
विपक्ष ने सदन नहीं चलने दिया। यह बात प्रमुखता से जनता के बीच पहुंचाई जा चुकी है। इस तथ्य से दोनों सदनों के अभिभावक अनजान नहीं रह सकते कि भारत के प्रेस में विपक्ष को कितनी जगह दी जा रही है। हर ख़बर सरकार की नज़र से पेश हो रही है या ख़बर की नज़र से। अगर दोनों सदनों के अभिभावक लोकतंत्र को लेकर चिन्तित हैं तो उनकी चिन्ता में यह बात शामिल होनी चाहिए और यह भी कि जब विपक्ष के सदस्य सदन के भीतर प्रदर्शन करते हैं तो उसका प्रसारण क्यों रोक दिया जाता है? आख़िर जब सरकार उन उदाहरणों का ज़िक्र कर रही है कि कोई सदस्य मेज़ पर चढ़ गया तो किसी ने नियम पुस्तिका आसन की तरफ उछाल दी तो इसे क्यों नहीं दिखाया जाता है। क्या विपक्ष का आरोप सही है कि विरोध की गतिविधियों का सीधा प्रसारण नहीं होता है? जब प्रसारण नहीं होता है तो उसका ज़िक्र क्यों किया जाता है?
दोनों सदनों के अभिभावकों को दो चार हिन्दी के अख़बार मंगा कर देखना चाहिए। संसद को लेकर किसका पक्ष ज़्यादा छपा है, पता चलेगा। यह उन्हें भी आश्वस्त करेगा कि विपक्ष ने जो भी किया है जनता के बीच पहुंचा है। इसलिए अब वे बताएं कि सरकार ने क्या किया है ताकि उनके हवाले से जनता के बीच पहुंचे। गोदी मीडिया के कारण यह बात जनता के बीच नहीं पहुंची है कि सरकार ने सदन क्यों नहीं चलाया? सरकार की तरफ से भी यही बात पहुंची है कि विपक्ष ने सदन नहीं चलने दिया है। मोदी सरकार के पास 300 से अधिक सांसदों का समर्थन है। किसी भी नियम के तहत चर्चा हो और उस पर हर बार मतदान हो तो भी इस सरकार की स्थिरता पर कोई असर नहीं होता है। एक सुरक्षित सरकार ने विपक्ष की मांग मान लेने की उदारता क्यों नहीं दिखाई?
ओबीसी बिल पर हुई चर्चा में भागीदारी और मतदान साबित करता है कि विपक्ष ने सरकार का अंध विरोध नहीं किया। विपक्ष ने अपनी उदारता का प्रदर्शन किया और व्यापक सामाजिक हित में चर्चा में हिस्सा लिया। यह इशारा करता है कि विपक्ष हर वक्त सरकार को सुनने के लिए तैयार था लेकिन सरकार अपनी ही सुनाने में लगी रही, उससे पीछे नहीं हटी। क्या सरकार ने ओबीसी बिल पर विपक्ष की भागीदारी का एक अवसर के रुप में उठाने का प्रयास किया? क्या यह मौक़ा नहीं था कि सरकार भी दो कदम पीछे हट सकती थी और विपक्ष की मांग मान सकती थी? यह सवाल है। लोकसभा के स्पीकर और राज्य सभा के सभापति को इस पर अपनी राय स्पष्ट करनी चाहिए। उम्मीद है आने वाले दिनों में मीडिआ या किसी अन्य मंच से इंटरव्यू में करेंगे ही।
लोकतंत्र की चिन्ता में डूबे दोनों अभिभावकों को इस पर भी चिन्ता ज़ाहिर करनी चाहिए और दोनों पक्षों की भूमिका स्पष्ट करनी चाहिए कि बिना चर्चा के बिल क्यों पास हुए। अगर विपक्ष ने किसी बिल को सलेक्ट कमेटी में भेजने का आग्रह किया गया तो क्यों नहीं स्वीकार किया गया? क्या विपक्ष का यह आग्रह सही है कि ज़्यादातर बिल अब सलेक्ट कमेटी में नहीं भेजे जाते हैं जहां पर हर दल के सासंद दिमाग़ से गहराई से चर्चा करते हैं। राज्य सभा के सभापति को यह भी बताना चाहिए कि क्या यह सही है कि पिछले पांच साल में प्रधानमंत्री ने राज्य सभा में एक भी प्रश्न का जवाब नहीं दिया है? तृणमूल सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने आरोप लगाया है। इन सवालों के जवाब से भरोसा बढ़ेगा कि हमारे देश की विधायिका के सर्वोच्च अभिभावक लोकतंत्र को सुचारु रुप से चलाने और बनाए रखने में सरकार की भूमिका को लेकर भी चिन्ती हैं।
मानसून सत्र में जो हुआ, किसी को अच्छा नहीं लगना चाहिए। लेकिन यह ग़लत होगा कि सिर्फ विपक्ष की भूमिका को लेकर अच्छा नहीं लग रहा है। जानना ज़रूरी है कि सरकार की क्या भूमिका थी? दोनों अभिभावकों की व्यथा में बराबरी दिखनी चाहिए। उनकी उदास निगाहें दोनों तरफ उठनी चाहिए। इस तरह नज़र उठनी चाहिए कि सरकार को अतिरिक्त समर्थन मिलता न दिखे और विपक्ष को अभिभावक की कमी महसूस न हो।.
(रवीश कुमार, ndtv)
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