आज सुबह इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर यह खबर, शीर्षक और तस्वीर देखकर बस मजा आ गया। थोड़ी व्यस्तता और कुछ तकनीकी दिक्कतों के कारण इसे अब पोस्ट कर पा रहा हूं। आज द टेलीग्राफ के पहले पन्ने की खबरों का चयन भी ऐसा ही है। दोनों को देखकर ख्याल आया कि अखबारों में ऐसी खबरें नहीं छपें तो आखिर ये छपें किसलिए? वैसे भी डिजिटल का जमाना है।
अखबारों का काम सरकार का प्रचार करना नहीं है और ना सरकार इसके लिए उनपर आश्रित है। दूसरी बात यह कि कागज का जो संकट तथा महंगाई का जो आलम है उसमें इन्हें छपना ही क्यों चाहिए। या तो ढंग की चीजें छापो या फिर बंद कर दो। मेरा मानना है कि सरकार को अब प्रचार वाले अखबारों की जरूरत नहीं रह गई है और अगर अखबार नहीं सुधरे तो बंद भी हो सकते है। जनता तो कम से कम नहीं ही बोलेगी। और भक्त बेचारे किस मुंह से कहेंगे कि अखबार जरूरी है।
आने वाला समय दिलचस्प होने वाला है। बुलडोजर पत्रकारों पर चल रहे हैं। और इमरजेंसी नहीं है फिर भी झुकने के लिए कहने पर लोग रेंग रहे हैं। ऐसा में खबर तो कभी-कभी ही दिखती है। अब तक के काबिलतम गृहमंत्री की पुलिस की ऐसी भद्द पहले शायद ही पिटी हो।
संजय कुमार सिंह (वरिष्ठ पत्रकार)
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