सफल हो जाना बड़ी बात नहीं। बड़ी बात है कि सफल व्यक्ति की सफलता किसी के काम आ जाए। मूल रूप से प्रयागराज के पत्रकार मनोज मिश्र ने अपना कर्म क्षेत्र लखनऊ चुना। और फिर उनके संघर्ष से उनकी पत्रकारिता की अलख देश के तमाम सूबों में रोशन हो गई। लोग कहते हैं कि धनाभाव के दौर से गुजरने वालों को पत्रकारिता के पेशे में नहीं आना चाहिए, क्योंकि यहां पहले से ही मुफलिसी है। लेकिन मनोज मिश्र ने दो रिस्क लिए। पहले वो पत्रकारिता के क्षेत्र में आए और फिर उन्होंने पब्लिशर बनने का साहस दिखाया। सारी धारणाओं को तोड़कर वो इतने सफल हुए कि आज देश के तमाम राज्यों में विभिन्न भाषाओं के दैनिक अखबारों का उनका साम्राज्य फल फूल रहा है। आजकल जमे जमाए अखबार प्रिंट मीडिया की बढ़ती मुश्किलों से अपने एडीशन समेट रहे हैं लेकिन मनोज का साहस है कि वो अपने अखबारों और संस्करणों का साम्राज्य बढ़ाते जा रहे है़।
प्रिंट मीडिया में बेरोजगारी के इस दौर में देशभर में सैकड़ों अखबार कर्मियों को उन्होंने रोजगार दिया। इनके अखबारों से राज्य मुख्यालय की प्रेस मान्यता प्राप्त दर्जनों पत्रकार हैं।
मुझे याद है लखनऊ के एक पत्रकार की प्रेस मान्यता और नौकरी चली गई थी। वो परेशान थे। किसी ने उन्हें बताया कि मनोज मिश्र जी के पास जाओ वो मदद जरूर करेंगे। सलाह सही निकली। नौकरी और प्रेस मान्यता हासिल हो गई। कुछ दिनों बाद उस पत्रकार को जबरदस्त हार्ट अटैक पड़ा। प्राइवेट अस्पताल ने जवाब दे दिया, कहा बचना मुश्किल है। ले जाइए। पीजीआई ले जाए गए। वहां लाखों का खर्च था और गरीब पत्रकार के परिजनों के पास लाखों तो दूर हजारों रुपए भी नहीं थे। प्रेस मान्यता की बदौलत बीस लाख से अधिक खर्च का इलाज पीजीआई ने किया। सूचना निदेशक शिशिर जी ने नियमानुसार तत्काल ये बड़ी रकम सूचना विभाग से पीजीआई ट्रांसफर करवा दी।
और इस तरह एक गरीब पत्रकार का जीवन बच गया।
पत्रकार से प्रकाशक बने मनोज के संघर्षों से निखरी उनकी सफलताओं ने पत्रकारिता के विभिन्न आयामों को फायदे लाभान्वित किया है।
कॉरपोरेट घरानों ने मीडिया पर क़ब्जा कर लिया है। चंद अखबार बचे हैं जो मीडिया के बदलते दौर में भी बदले नहीं। इसकी स्थानीय पहचान रही और ये कॉरपोरेट के शिकंजे से मुक्त रहे। एक जमाना था जब लखनऊ में स्वतंत्र भारत,कानपुर से दैनिक जागरण, आगरा से अमर उजाला, वाराणसी में आज, अयोध्या में जनमोर्चा और इलाहाबाद (प्रयागराज) में युनाइटेड भारत की अलग-पहचान थी।
ये अखबार पत्रकारिता के इंस्टीट्यूशन्स जैसे भी थे। कभी जो इन अख़बारों के नवांकुर थे आज हिंदी पत्रकारिता के वटवृक्ष हैं। कोई देश के ब्रांड अखबार या नेशनल टीवी चैनल का संपादक हैं तो कोई ब्यूरो चीफ।
अमर उजाला और दैनिक जागरण तो ख़ैर राष्ट्रीय ब्रांड अखबार हो गए लेकिन अन्य इन अख़बारों का अस्तित्व कायम रहना ही बड़ी बात है। कारण ये कि नब्बे के दशक में सैटेलाइट न्यूज चैनलों की बाढ़ आई, फिर मौजूदा दौर में डिजिटल मीडिया की आंधी आ गई। कॉरपोरेट घरानों ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए मीडिया हाउसेज शुरु कर उसमें पानी की तरह पैसा बहाना शुरू कर दिया। स्वतंत्र भारत, जनमोर्चा, यूनाइटेड भारत, तरुण मित्र,स्वतंत्र चेतना, राष्ट्रीय स्वरूप जैसे उत्तर प्रदेश के स्थानीय पहचान वाले अखबारों को सरकारी विज्ञापनों का सहयोग मिलना कुछ कम हो गया। अखबारी कागज का भाव सातवें आसमान पर पंहुच गया। ऐसे में स्थानीय पहचान वाले पुराने अखबारों का ज़िन्दा रहना ही बड़ी उपलब्धि है।
पत्रकारिता के इंस्टीट्यूशन्स कहे जाने वाले अखबारों में शामिल प्रयागराज के युनाइटेड भारत को खरीद कर एक नई जिन्दगी देने वाले लोकप्रिय पत्रकार मनोज मिश्रा ने यूपी के इस पुराने अखबार को आगे बढ़ाने का साहसिक जिम्मा लिया है।
उत्तर भारत से लेकर नॉर्थ ईस्ट तक में अनेकों अखबारों को जन्म देने वाले मनोज मिश्र का आज जन्मदिन है।
मुबारकबाद
नवेद शिकोह