पुरस्कार पर कुछ विचार
१ पुरस्कारों से लेखक बड़े नहीं बनते, लेखकों से पुरस्कार बड़े बनते हैं।
२ जिन अच्छे लेखकों को पुरस्कार नहीं मिलते, उनकी कोई बड़ी क्षति नहीं होती।
३ जिन ख़राब लेखकों को पुरस्कार मिल जाते हैं वे महान नहीं मान लिए जाते। उल्टे वे और ख़राब लेखन करने लगते हैं।
४ पुरस्कारों की एक सीमित उपयोगिता है- वे कुछ समय के लिए किसी लेखक की ओर ध्यान खींच सकते हैं, लेकिन लेखक को बड़ा नहीं बना सकते।
५ साहित्य अकादेमी, ज्ञानपीठ या नोबेल विभूषित कई लेखकों को हम भूल चुके हैं। बल्कि यह जान कर विस्मय होता है कि उन्हें भी यह पुरस्कार मिला।
६ जबकि हम ऐसे कई लेखकों को चाव से पढ़ते हैं जिन्हें ऐसे पुरस्कार नहीं मिले। कुंदेरा, मुराकामी या कई और लेखक इसके उदाहरण हैं।
७ लेखक अपने लिए लिखता है, लेकिन चाहता है कि उसका लिखा पढ़ा जाए। प्रतिक्रिया या प्रशंसा उसे लुभाती है। पुरस्कार भी आकर्षित कर सकते हैं।
८ लेकिन पुरस्कारों को अपने तक आने दें, दौड़ कर पुरस्कारों तक जाने की कोशिश न करें। पुरस्कर्ताओं को लुभाने की कोशिश आपके लेखन और विचार दोनों को संदिग्ध बना डालती है।
९ पुरस्कार मिले तो यह भी देखें कि वह आपके योग्य है या नहीं। इसका फ़ैसला इस बात से न करें कि वह कितनी बड़ी संस्था या कितनी बड़ी रक़म का है- यह देखें कि पुरस्कार उस विचार या संवेदना के लिए दिया जा रहा है या नहीं, जिससे आपका लेखन बना है। हर पुरस्कार के पीछे सपाट राजनीति होती हो या नहीं, विचार ज़रूर होता है जिस पर राजनीति का भी प्रभाव पड़ता है, यह ख़याल रखें।
१० मगर किसी भी पुरस्कार को सीने से चिपका कर या गले में लटका कर या माथे पर लादे न घूमें। उसे ताखे पर रख कर धूल खाने दें (कभी-कभी साफ़ भी कर दें)।
११ ज़रूरी समझें तो पुरस्कारों को ठोकर मारने का माद्दा भी रखें। इससे सम्मान बढ़ता है घटता नहीं है।
१२ पुरस्कार को पुरस्कार न लिखें, सम्मान लिखें। किसी को दें तो सम्मान दें, पुरस्कार नहीं।
१३ पुरस्कारों पर बहस करके बहुत ऊर्जा न गंवाएं। वे इतनी पात्रता नहीं रखते।
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