यह मेरा अहंकार नहीं सत्य है कि मैं ‘जनसत्ता’ में कोई 12-13 साल रहा और वे ही साल ‘जनसत्ता’ की दुपहरी थे। ‘जनसत्ता’ एक चमचमाता सूरज। 19 नवंबर 1983 से ‘जनसत्ता’ छपना शुरू हुआ था। मैंने जून-जुलाई 1995 में ‘जनसत्ता’ से इस्तीफा दिया और तभी शुरू ‘जनसत्ता’ का ढलान। मेरे नौकरी छोड़ने के छह-आठ महीने बाद 1995 के आखिर में नए मालिक विवेक गोयनका ने राहुल देव को संपादक बना कर प्रभाष जोशी को सलाहकार संपादक के कमरे में समेटा। बनवारी स्वाभिमानी थे तो उन्होंने ‘जनसत्ता’ छोड़ा। तीसरे साथी सतीश झा पहले ही ‘जनसत्ता’ छोड टाइम्स ग्रुप में कुछ प्रयोग करके विदेश जा चुके थे।
मैंने क्यों छोड़ा? कुछ मोहभंग, कुछ नया करने की फड़फड़ाहट, अयोध्या में मस्जिद ध्वंस के आगे-पीछे प्रभाषजी के जागे एक्टिविज्म व रामनाथ गोयनका के बाद उनके दत्तक मालिकानों के मिजाज की समझ व कुछ तैश में मेरा नौकरी छोड़ने का फैसला था। मैं पीवी नरसिंह राव सरकार के साथ नब्ज पर ‘जनसत्ता’ की पकड़ खत्म होते और ढलान की शुरूआत को बूझने लगा था। …. एक दिन मनोज ने अचानक मुझे कंपनी की कार दे दी। प्रभाषजी को अटपटा लगा। ध्यान रहे प्रभाषजी अपनी सर्वोदयी तासीर में स्टाफ की तनख्वाह-सुविधाएं बढ़वाने में उदासीन रहते थे। वे रामनाथ गोयनका से लड़ते नहीं थे। एक्सप्रेस में पद, वेतन, प्रमोशन की रफ्तार तेज होती थी जबकि ‘जनसत्ता’ घसीटता हुआ। मैनेजमेंट के लोग कहते थे कि प्रभाषजी ने हमें लिखा कब जो हमने वेतन बढ़ाने से इनकार किया। वे कहें तो सही! यहीं नहीं प्रभाषजी ने एक-दो बार आ कर स्वंय कहा कि एक्सप्रेस में वेतनमान बढ़ा दिया है लेकिन मुझसे पूछा तो मैंने कहा हम पैसे के लिए काम नहीं कर रहे!
….. पहले मेरी इच्छा थी कि मैं अशांत पंजाब में संपादक बन अखबार में कुछ नया कर दिखाऊं। प्रभाषजी ने मेरी बात नहीं सुनी। (बाद में उन्होंने बताया वे मेरी निजी चिंता में याकि नई-नई शादी, दिल्ली कवरेज में जरूरत व पंजाब के आतंकी परिवेश से मुझे चंडीगढ़ में नहीं चाहते थे)। कई नामों पर विचार करने के बाद भोपाल से एनके सिंह को बुलाकर बात की। प्रभाषजी भी सहमत। पर सेलेरी पर बात अटकी। उसकी पहले ही सेलेरी अधिक थी तो कम पर कैसे बात हो? हम सबका वेतन कम था। प्रभाषजी या तो सबके बढ़वाएं या अकेले उसे अधिक दें के पेंच में एनके सिंह पर बात आगे नहीं बढ़ी। तभी अचानक प्रभाषजी ने सर्वोदयी-एक्टिविज्म भाव में अपत्रकार जितेंद्र बजाज को संपादक बनाने का फैसला लिया। ….
और चंडीगढ़ संस्करण उठा ही नहीं। ऐसे ही एक दिन अनुपम मिश्र के कहने पर प्रभाषजी ने राहुल देव को नए मुंबई संस्करण का संपादक बना डाला। मेरा राहुल से कोई दुराव नहीं था लेकिन 1980 की फीचर एजेंसी के दिनों आईएनएस में ‘करंट’ अखबार के दफ्तर में काम करते हुए राहुल देव को मैंने जाना-बूझा-क्षमताएं देखी हुई थीं। ऐसे ही मैं इतवारी पत्रिका में संपादकी करते हुए ओम थानवी की क्षमताओं को भी बूझे हुए था। लेकिन ‘जनसत्ता’ क्योंकि तेजी से भागता सफल था तो प्रभाषजी को सफलता अपच हुई। उनका पुराना एक्टिविज्म जागा। 1991 आते-आते तो वे अपने को चाणक्य सा समझने लगे। बाहर के लोग स्टाफजनों के बीच में उनका और उनकी पत्नी का राजऋषि-राजमाता वाला व्यवहार बूझते। …..
मैं नरसिंह राव से शुरू उदारीकरण से पाठकों का मिजाज व सरोकार बदलते देख रहा था। मैं बहस करता था कि यदि ‘राजस्थान पत्रिका’ दो पेज कारोबार-शेयर बाजार पर दे रहा है, ‘भास्कर’, ‘जागरण’, ‘अमर उजाला’ मध्य वर्ग के बदलते मूड को भांप कर तेजी से अपने को बदल रहे हैं तो ‘जनसत्ता’ की दो उप संपादकों की बिजनेस डेस्क से क्या बनेगा? जब लिखने के दम से ‘जनसत्ता’ का ब्रांड बना है तो भला संस्करणों में मैनेजर माफिक टीम लीडर बना कर क्या बनेगा? मैनेजर संपादकों से भला ‘जनसत्ता’ की पत्रकारिता की कैसे धमक बनेगी? ….
…. मेरा मानना था और है कि ‘जनसत्ता’ का उठान पंजाब में आतंकवाद और इंदिरा गांधी की हत्या के वक्त की हिंदू भावना और राजीव गांधी के राज में वीपी सिंह के उठाए भ्रष्टाचार मसले व फिर वीपी सिंह के वक्त में मंडल-मंदिर से सुलगी राजनीति में बनी जन-भावनाओं से था, उस पर हम लोगों के बेबाक व नए अंदाज में लिखने व रिपोर्टिंग से था। जबकि नरसिंह राव सरकार आते-आते जनता की धड़कनें बदलती हुई थीं, जिसे हम बूझ नहीं पा रहे थे।
….. प्रभाषजी के जागे एक्टिविज्म में मुगालता था कि भैरोसिंह शेखावत, भाऊराव देवरस, चंद्रशेखर आदि के साथ बातचीत करके वे रास्ता निकलवा कर अयोध्या संकट टलवा देंगे या फलां-फलां तरीके से रास्ता निकल सकता है। … अपना मानना है उनका यह रूपांतरण मूल सर्वोदयी संस्कारों में था। यह सर्वोदयीपना ‘जनसत्ता’ निकलने से पहले तक सर्वोदयी संगत में था। विनोबा भावे, सिद्धराजजी, भवानी बाबू, अनुपम मिश्रा याकि जीपीएफ वाला उनका अड्डा सर्वोदयी खूंटे से था। बहुत कम लोग जानते होंगे कि जब विनोबा भावे ने भूदान मिशन शुरू किया तो प्रभाषजी सब कुछ छोड़छाड़ इंदौर में विनोबा भावे के विसर्जन आश्रम में जा बैठे। आश्रम की दिन भर की गतिविधियों का एक पर्चा निकाल उसे शाम को बंटवाते। ….. लेकिन उलटा हुआ तो वे छह दिसंबर 1992 के दिन अपना निजी आघात लिए हुए थे। प्रधानमंत्री नरसिंह राव और भाजपा-संघ पर फतवा दे बैठे। और फिर जो हुआ वह कागद कारे था, जिससे वे जनवादियों की लाल उग्रता के महानायक बने और प्रभाषजी को जनवादियों का लाल सलाम मिलने लगा। कॉमरेड चेहरे ‘प्रभाष परंपरा’ जैसे शब्द गढ़ने लगे। वहीं यूपी-बिहार की पत्रकारिता परंपरा वाले पत्रकारगण झांकी सझा कर राजऋषि प्रभाषजी की डोली उठा घुमाने लगे।
….. मेरे ‘जनसत्ता’ छोड़ने के छह-आठ महीने के भीतर मुंबई के स्थानीय संपादक राहुल देव को विवेक गोयनका ने दिल्ली में संपादक बना बैठा दिया। राहुल देव क्योंकि काबिल जनसंपर्क जुगाड़ू रहे हैं तो विवेक गोयनका ने जल्दी ही प्रभाषजी के दबदबे से, जनसत्ता के तेवरों से बाहर निकलने के लिए राहुल को उपयुक्त माना। अन्यथा यदि प्रभाषजी को रिटायर करना ही था तो हिसाब से उनके बाद वे बनवारी को मजे से संपादक बना सकते थे लेकिन बनवारी अपने मिजाज में, स्वाभिमान में जीने वाले। कहते हैं प्रभाषजी ने एक दिन बनवारी को सूचना दी कि मैनेजमेंट ने राहुल देव को संपादक बनाने का निर्णय लिया है। मतलब प्रभाषजी से उपकृत विवेक गोयनका ने प्रभाषजी से पूछने की जरूरत नहीं समझी!… मुझे जानकर अच्छा लगा कि ज्योंहि परिवर्तन हुआ बनवारी ने अपने अंदाज में राहुल से बात कर नौकरी छोड़ी.. राहुल को इस्तीफा दिया।…प्रभाषजी लाचार थे वे जनसत्ता के एक कोने में बैठ अपने सामने ‘जनसत्ता’ की संध्या आते देखते हुए कागद काले करते रहे! ….
उससे छह महीने पहले ही मैंने जून 1995 में ‘जनसत्ता’ वैसे ही छोड़ा जैसे जेएनयू और टाइम्स समूह को 1979 में छोड़ा था। मुड़ कर फिर कभी ‘जनसत्ता’ को देखा ही नहीं। हां, मनोज और विवेक गोयनका का सद्भाव लगातार रहा। डेढ़ दशक बाद ‘नया इंडिया’ निकालने से पहले एक्सप्रेस में अपना अखबार छपवाने व हरिद्वार में सुनील पांडे के आग्रह पर मैं विवेक गोयनका से मिला तो उन्होंने जिस सहृद्यता से बात की और मनोज सौंथालिया ने निज आग्रह से परिवार में शादी के लिए जैसे चेन्नई बुलाया तो मुझे यह समझ संतोष हुआ कि ‘जनसत्ता’ की अपनी छाप को दोनों ने संजो रखा है। …..
…. हां, 1998 के ‘नेटजाल’ के मोड़ पर जब मैंने डॉ. वेदप्रताप वैदिक को अपने साथ लिया तो इंदौर के चेहरों का मेरा संयोग फिर ताजा हुआ। तभी अब उलझन है कि मैं आगे के सफर पर पहले लिखूं या राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी व डॉ. वैदिक के तीन चेहरों की तिकड़ी पर पहले विचारूं? क्यों न इंदौर-मालवा के तीनों चेहरों की समग्रता में हिंदी पत्रकारिता का अर्थ निकाला जाए? पर उसके पहले क्या ‘जनसत्ता’ के बाकी चेहरों के मायने बूझने की कड़ी ठीक नहीं होगी? (जारी)
संजय कुमार सिंह
var /*674867468*/