हेड ऑफिस
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हर ऑफिस का एक हेड ऑफिस होता है। जो हेड ऑफिस में होता है वो विशिष्ट होता है। क्योंकि मैं टीवी पत्रकार रहा हूं इसलिए मैं शुरुआत वहीं से करूंगा।
हालांकि पहले ऐसा नहीं होता था। खास कर जब मैं अखबार में काम करता था तो बिल्कुल नहीं होता था। अगर किसी शहर में कोई बड़ी घटना हो गई तो उस शहर का मुख्य संवाददाता जो होता था, वही उसे कवर करता था। पर टीवी खबरों की दुनिया में मैंने देखा कि कहीं कोई बड़ी घटना हुई नहीं कि लोकल किनारे कर दिया गया, हेड ऑफिस वाला घटना स्थल पर पहुंच गया। शुरू में तो हेड ऑफिस से रिपोर्टर वहां जाते थे, फिर एंकर का जाना शुरू हुआ। और एक ऐसा दौर आ गया जब सिर्फ स्टार एंकर को स्टार रिपोर्टर बना दिया गया। स्टार एंकर की जगह मैं महिला एंकर भी लिख सकता हूं लेकिन मैं जेंडर बायस्ड नहीं हूं इसलिए मैंने सिर्फ स्टार एंकर लिखा।
यहां लिखते-लिखते एक और बात दिमाग में आ रही है। संजय सिन्हा के दिमाग में कोई बात आती है तो वो उसे आपसे साझा कर लेते हैं। क्योंकि मैंने सिनेमा का संसार भी बहुत नज़दीक से देखा है इसलिए बता रहा हूं कि सिनेमा में हीरो की कीमत हीरोइन से अधिक होती है। लेकिन न्यूज़ की दुनिया में पुरुष एंकर की तुलना में महिला एंकर की कीमत अधिक होती है।
महिला एंकर को तरह-तरह के असाइनमेंट दिए जाने लगते हैं और फिर देखते-देखते उसी का जलवा जमने लगता है। पहले उन्हें काम दिया जाता है फिर स्टार बनाया जाता है। हालांकि वहां भी कौशल्या और कैकेयी जैसी स्थिति बनती है क्योंकि देर-सबेर तो सबको सलमा सुल्तान बनना ही पड़ता है और फिर…।
खैर, ये मेरी आज की कहानी नहीं है। वो तो बात से बात निकली है तो मैंने इतना कह दिया। मेरी आज की कहानी का नाम है हेड ऑफिस।
आजकल चुनाव प्रचार में मैं नया प्रयोग देख रहा हूं। भले प्रधान मंत्री लोकल की वकालत करते रहे हों और ये नारा भी चमकता रहा हो कि लोकल के लिए वोकल हों लेकिन हकीकत में चुनाव प्रचार में लोकल को किनारे कर दिया जाता है, हेड ऑफिस से एंकर, क्षमा करें नेता चुनाव प्रचार के लिए भेज दिए जाते हैं। अब लोकल रिपोर्टर या लोकल नेता का काम हेड ऑफिस वाले को सुविधा मुहैया कराने का हो जाता है।
पहले चुनाव में स्थानीय नेता की छवि के आधार पर वोट मांगा जाता था। अब आलाकमान के नाम पर वोट मांगे जाते हैं। घर-घर आला कमान। मतलब लोकल की ज़िम्मेदारी खत्म। अगर कुछ विकास नहीं हुआ तो लोकल कुछ कर नहीं सकता और हेड ऑफिस वाला रोज़ आ नहीं सकता।
टीवी न्यूज़ की दुनिया में तो कुछ संपादकों ने लोकल ब्यूरो और रिपोर्टर को टट्टू बना कर रख दिया। वहीं तीन चार चेहरे आपको बिहार में दिखेंगे, उत्तर प्रदेश में दिखेंगे, मध्य प्रदेश में दिखेंगे, कश्मीर में दिखेंगे, चेन्नई में दिखेंगे, हैदराबाद में दिखेंगे, क्रिकेट में दिखेंगे, अमेरिका में दिखेंगे मतलब हर जगह। लोकल का हौसला इस तरह तोड़ा गया कि वो सिर्फ नौकरी बचाए रखने के पीछे लग कर रह गए। ऊपर से हेड ऑफिस से रह-रह कर ये फरमान भी जाता है कि आप कुछ नहीं करते, सब यहीं से हमें देखना पड़ता है। खैर, बात हो रही है हेड ऑफिस की।
तो आजकल चुनाव प्रचार में मैं देख रहा हूं कि चाहे चुनाव चेन्नई में हो या गोवा में। मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री चेन्नई में वोट मांगने पहुंच जाते हैं, उत्तर प्रदेश वाले गोवा में। काहे भाई? आप वहां जाकर क्या कर लेंगे? कोलकाता में मध्य प्रदेश वाला किस ग्राउंड पर वोट मांगेगा? क्या वादा करेगा?
छोड़िए। इस बात को छोड़िए। मेरे बाल मन में एक सवाल और उठने लगा है कि क्या देश के किसी मंत्री को किसी चुनाव में वोट मांगना चाहिए? अरे भाई आप देश के मंत्री हैं। आप सबके मंत्री हैं। जिसने वोट दिया उसके भी, जिसने नहीं दिया उसके भी। फिर आप किस हक से किसी पार्टी या नेता के लिए वोट मांग सकते हैं?
मेरे इस सवाल पर कुछ लोग भड़ेकेंगे कि ऐसा आज थोड़े न शुरू हुआ है? ये तो सदियों से चला आ रहा है। आ रहा होगा? पर अब समय है सोचने का। क्यों हेड ऑफिस लोकल पर हावी हो? क्यों प्रधान मंत्री को किसी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करना चाहिए? आपने प्रचार किया, आप जीत गए आप अब संवैधानिक पद पर हैं। आप सभी के हैं। आप किसी एक के लिए कैसे वोट मांग सकते हैं? आप किसी पार्टी के मंत्री नहीं। खैर ये भी छोड़िए। मेरा राजनैतिक ज्ञान शून्य है। पर मेरे मन में ये सवाल है कि मध्य प्रदेश वाला तमिलनाडु में किस मुंह से वोट मांगता होगा? ओह! संजय सिन्हा के पास कुछ लिखने को नहीं तो अल्ल-बल्ल कुछ भी लिख कर रूटीन पूरा कर रहे हैं।
पर सोचिएगा ज़रूर, जो मैंने पूछा है। टीवी न्यूज़ को तो हमने बर्बाद कर ही दिया, उसकी विश्वसनीयता खत्म कर ही दी। लोकल को ढक्कन बना ही दिया। अब तो लोग टीवी न्यूज़ में सिर्फ एंकर को देखते हैं, न्यूज़ नहीं। पर हेड ऑफिस वाले नेता तो इस लायक भी नहीं होते कि कोई लोकल में उन्हें देखे।
इंदिरा गांधी ने कहा था बातें कम, काम ज्यादा। मैं कहता हूं कि काम कम,बातें ज्यादा। जो ज्यादा बातें करता है, वही चुनाव जीतता है। काम का क्या? काम या तो हो जाता है या फिर नहीं होता। नहीं होता तो कोई बात नहीं, अगली बार फिर वोट दे देना क्या पता हो जाए? और तब भी न हो तो भी आप कौन-सा अमर होकर आए हैं जो जीवन भर समस्या देखते रहेंगे। अरे आप चले जाएंगे, दूसरा आएगा। उसकी बला से वो समस्या देखे या झेले।
बस आज इतना ही। ठंड में कुछ का कुछ रोज़ लिख दे रहा हूं। पता नहीं कहां गई संजय सिन्हा की रिश्तों की कहानी? जहां सास होती थी, बहू होती थी, बेटियां होती थीं, भाई होते थे।
राजनीति और खबरनीति जो न कराए कम है।
#SanjaySinha
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