एक फर्जी कतरन और मेरे मन की बात
न्यूयॉर्क टाइम्स के इस ‘कतरन’ में बाकी सब तो ठीक है सिर्फ सितंबर गलत लिखा हुआ है। ऐसा नहीं है कि अखबारों में गलती नहीं होती है पर अखबार में काम करने वाले जानते हैं कि नए महीने का नाम खत्म हो रहे महीने के आखिरी दिन डाक एडिशन में कंपोज होता है और अगर गलती रह ही जाए तो हजारों-लाखों कॉपी बंटने के बाद महीने की पहली तारीख को ही गलती सुधर जानी चाहिए। ऐसी गलती किसी डमडम डिगा-डिगा किस्म के अखबार में नहीं होती है पर भक्तों ने न्यूयॉर्क टाइम्स का यह हाल कर डाला है कि 26 दिन तक किसी को गलती नहीं दिखी या उस अखबार में मोदी जी को इतनी प्रमुखता मिली जिसके मास्टहेड में लगातार 26 दिनों से महीने का नाम गलत छप रहा है। प्रिंटलाइन में गलती तो हमलोग कर चुके हैं पर मास्टहेड में गलती याद नहीं है। डाक एडिशन में भी नहीं। असल में उसे एडिटोरियल वाले तो देखते ही हैं, प्रेस वाले भी बहुत बारीकी से देखते हैं और खुर्राट किस्म के प्रूफ रीडर को आप जानते हों तो वे हजारों शब्दों में सिर्फ एक गलती हो तो उसी को पकड़ते हैं। सितंबर 26 वें दिन भी गलत छपने का कोई मतलब नहीं है। जहां तक खबर की बात है, अगर यह सही है तो 10-20-50 साल बाद जब मोदी जी नहीं रहेंगे तो दुनिया भी नहीं रहेगी, शायद। बाकी ऐसे फर्जीवाड़े पर क्या कहूं? फर्जीवाड़ा भी नहीं आता है चाहे एंटायर पॉलिटिकल साइंस की डिग्री हो या अटैची लेकर विमान यात्रा करनी हो या नीचे से लाइट लगाकर कागज पढ़ाना हो। अगर एक ही पीआर एजेंसी तो हटाई क्यों नहीं जा रही है और हर बार बदलने पर भी कोई ना कोई गलती रह ही जा रही है तो एजेंसी चुनता कौन है?
असली से मिलान करना चाहें तो ये रहा लिंक –
भाई लोगों ने इसी में कुछ फेर बदल किया होता तो ये ब्लंडर नहीं होता। अब यह कहा जा सकता है कि विरोधियों ने किया है। लेकिन विरोधियों ने किया तो आईटी कानून किस बात के लिए है?
वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह
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