एक दिन जब ‘फर्क नहीं पड़ने’ का इतिहास लिखा जाएगा…
पत्रकारिता के विद्यार्थियों को नाम वाले पत्रकारों की जगह जुनून वाले पत्रकारों को फॉलो करना चाहिए। नाम बनाना कोई बड़ी बात नहीं है।बड़ी बात है अपनी जिज्ञासाओं का अनुसरण करना और उसके लिए यात्राओं पर निकलना। उन पत्रकारों ने भी इस पेशे को बहुत दिया है जिन्हें पहचान नहीं मिली। इसलिए इस पेशे में आने का जो बुनियादी कारण है, उनके पास भी है। कहीं ज़्यादा खरा। लंदफंद देवानंद हाफ-डीप से मुक्त ऐसे पत्रकार अपनी हताशाओं को कमंडल और कंबल की तरह कांख में दबाए चलते रहते हैं। वो जितना अधिक हाशिये की तरफ़ जाते हैं, उतना ही अपने पेशे के भीतर हाशिये पर धकेले जाते हैं।
“मैं ख़ुद इनकी तरह वंचित हूं। ये व्यवस्था से वंचित हूं और मैं अपने पेशे से।”
शिरिष खरे का यह दुख कई पत्रकारों के जीवन में अलग अलग तरीके से ज़ब्त है। कोई इस दुख को वेतन वृद्धि में अधिक हिस्सेदारी न होने की नज़र से देखता है, कोई ऐंकर न बन पाने की नज़र से तो कोई दफ्तर की राजनीति में पिछड़ जाने की नज़र से। मुमकिन है कई पत्रकारों के बीच शिरिष खरे जब यह दुख ज़ाहिर करते तो सब अपना दुखड़ा रोकर उनके दुख को बेकार कर देते। लेकिन शिरिष जी का दुख अपने पेशे में हाशिये के मुद्दों के हाशिये पर चले जाने का है। उन्हें इसका अहसास तब होता है जब वे मेलाघाट में पहुंच कर कुपोषण और ग़रीबी को देख रहे होते हैं। अगर ऐसे मुद्दों की जगह बनी रहती तो ऐसी ख़बरें लिखने वाला पत्रकार ख़ुद को वंचित समझता ही नहीं।
चंद दिनों पहले महाराष्ट्र से कुछ युवा आए थे। उनके भीतर पत्रकारिता का ख़्वाब उसी रुप में दिखा जिस रुप में पहली बार इस पेशे में आने वाले किसी ने देखा होगा।मेलाघाट की कहानियों को कितने पत्रकारों ने आगे बढ़ाई। वहां के लोगों के हालात नहीं बदले।पर्यटन पहुंच गया लेकिन विस्थापन भी बढ़ गया।जितनी देर रहे उनके चेहरे पर मेलाघाट ही दिखाई दे रहा था। शिरिष जी की किताब मेलाघाट की यात्रा से शुरू होती है। मैं उनकी यात्रा को देखते हुए उन पत्रकारों के दिल्ली आने की यात्रा को देखने लगा।
शिरिष खरे की किताब एक देश बारह दुनिया पढ़ते हुए इस पेशे से दुबारा प्यार जैसा होने लगा। मैं कुल जमा सत्तर पेज पढ़ सका हूं और उनकी बारह में से तीन दुनियाओं का साक्षात्कार हुआ है। लेकिन इस तीन दुनिया को देख रहे हैं मगर उस पत्रकार को देख रहा था जो अब दिखाई नहीं देता है। पश्चिम में पत्रकार संस्मरण लिखते हैं। अपने काम को जिल्दबंद करते हैं। रिपोर्ट से ज़्यादा उन किताबों के कारण वे पेशे में ज़्यादा जाने गए। भारत में भी लोगों ने लिखा है और पत्रकारिता और पत्रकारों को पढ़ने वाला तबका पढ़ता ही है।
हर कहानी एक पत्रकार से टकरा रही है। उसकी सार्थकता को ही ध्वस्त करने लगती है। वह लिख रहा है लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। फिर भी लिखते जा रहा है। किसी घटना और मुद्दों को लेकर ‘फर्क नहीं पड़ने’ का इतिहास लिखा जाना चाहिए। तब शायद ऐसी किताबें दस्तावेज़ बन जाएंगी। मेलाघाट की स्थिति में बदलाव नहीं आया यह पत्रकारिता की असफलता नहीं है। व्यवस्था की है। वैसे किसी को इसी बात पर शोध करना चाहिए कि मेलाघाट के कुपोषण पर कब से लिखा जा रहा है। किन-किन पत्रकारों ने लिखा और अब कौन-कौन लिख रहा है। उन सबके लिखे को एक सिलसिले में देखा जाए और आंकलन किया जाए कि कहां फर्क पड़ा और कहां फर्क नहीं पड़ा। साल और महीने के हिसाब से उनकी रिपोर्ट के फर्क को पढ़ा जाएगा और जोड़ा जाएगा कि इतने साल तक इतने पत्रकारों के लिखने के बाद भी फर्क नहीं पड़ा। कुछ नहीं हुआ। लोग मरते रहे। विस्थापित होते रहे। पत्रकार लिखते रहे। फर्क का नहीं पड़ना जारी रहा। शिरिष खरे की किताब ही इसका प्रतिकार है। यह किताब लिखी गई है क्योंकि किसी को फर्क पड़ता है। मुझे निजी रुप से काफी कुछ सीखने को मिला।
यह पुस्तक राजपाल प्रकाशन से छपी है। 295 रुपये की है। मैंने इसे एमेज़ॉन से मंगाई है।
पत्रकार रविश कुमार (NDTV)
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