जागरण को जलाने वाले अख़बार नहीं, अख़बार न पढ़ने की आग में ख़ुद को जलाएँ।
किसी भी पाठक का एक स्वाभिमान होता है। वह क्या पढ़ता है। वह अपने आस-पास किताबों का चुनाव काफ़ी सोच-समझकर करता है। उसके विस्तार के लिए नई नई चीज़ें जोड़ता है। इस तरह का पाठक अपने पाठक होने की अधिकतम सीमा का विस्तार करता है। दैनिक जागरण का पाठक अपने पाठक होने की न्यूनतम सीमा की पहचान कर ख़ुद को संकुचित कर लेता है। इस अख़बार का पढ़ा जाना ही अपने आप में बहुत कुछ कहता है। आम तौर पर अख़बारों के पाठक ऐसे होते हैं कि एक बार हॉकर फेंक गया तो दशकों तक आता ही रहता है। आज क्यों लोग इस अख़बार को लेकर हैरानी में हैं? जागरण तो रोज़ ही यह काम करता है। उनकी हैरानी बताती है कि जो जागरण के पाठक नहीं हैं वे भी आस-पास की चीज़ों का कितना कम अंदाज़ा है। हिन्दी प्रदेशों की पाठकीयता को संकीर्ण बनाने में इसका योगदान अद्भुत है। लोग पढ़ते हैं क्योंकि इससे ज़्यादा वे नहीं पढ़ सकते। इस अख़बार ने लोगों को इतना ही पढ़ने लायक़ बनाया है।
उन्हें भी भजन की आदत लग गई है इसलिए जागरण पढ़ते हैं। पढ़ेंगे। इस अख़बार का पढ़ा जाना बताता है कि हिन्दी प्रदेश का कुछ भी होना कितना मुश्किल है। तभी तो यह अख़बार अपने ख़राब होने में गर्व करता है। इसके पाठक सुन्न पढ़े जा रहे हैं कि किसी धर्म का उदय होने वाला है। बधाई।
किसानों ने अपने आंदोलन के दौरान अगर यही फ़ैसला नहीं किया कि कौन सा अख़बार पढ़ना है और कौन सा नहीं पढ़ना है तब फिर किसान आंदलोन को भी ख़ुद को लेकर सोचना चाहिए कि अपने घटकों के भीतर जागरुकता का अभियान चलाने वाला यह शानदार आंदोलन इस मामले में कैसे चूक गया कि किसान क्या देखें और क्या पढ़ें। समाज के पतन का प्रमाण है दैनिक जागरण। सरकार के लोग भी नहीं पढ़ते होंगे। उन्हें तो अपना सच पता ही है कि जो छप रहा है वह कितना सच है। मैं तो उस अफ़सर के बारे में सोचता हूँ जो इतनी पढ़ाई के बाद अफ़सर बनता है और हर दिन अपने मेज़ पर जागरण देखता होगा। या तो वह नहीं पढ़ता होगा या भी यूपी में काम करते करते उसका बोध ख़त्म हो चुका होता होगा। उसके बौद्धिक पतन का जागरण हो चुका होता है।
हमारे लोकतांत्रिक समाज में पहले से ही काफ़ी कुछ दरक चुका था, अब ध्वस्त हो गया है। जब भी कोई दौर आएगा जिसमें लोग महसूस करेंगे कि फिर से लोकतांत्रिकता का गठन किया जाए, नैतिकता की स्थापना की जाए तब पहला काम यही करना होगा। गोदी मीडिया को अपने घरों से, अपनी आदतों से निकाल कर फेंकना होगा। बिना गोदी मीडिया से संघर्ष किए विपक्ष बनने और लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना की कोई भी लड़ाई टाइम पास है। खोखली है। यह अख़बार गाँव गाँव बिकता रहेगा। पत्रकार इस अख़बार को लेकर अपनी स्मृतियाँ बघारते रहेंगे जैसे पत्रकारिता के शिखर से लौट आए हों। यहाँ काम करने वाले पत्रकारों की स्मृतियों में उस जागरण की महक नहीं देखी जिसे आज कुछ लोग जला रहे थे। जलाने का संबंध हिंसा से है। जागरण पढ़ने की आदत छुड़ाने का संबंध अहिंसा से है। दूसरा रास्ता बहुत लंबा और मुश्किल है। उन पत्रकारों को भी इस जीवन में आने और ऐसी पत्रकारिता करने का कितना अफ़सोस होता होगा। मुझे लगता है कि अफ़सोस तो होता ही होगा।
हिन्दी के ज़्यादातर अख़बार हर दिन साबित कर देते हैं कि हिन्दी प्रदेश के युवा और बुजुर्ग पाठकों की मौत हो चुकी है। मुर्दा हो चुके इन पाठकों पर हर दिन ये संस्थान अपने अख़बार का कफ़न डाल जाते हैं। इन अख़बारों से हिन्दी के पाठक पीछा नहीं छुड़ा सकते। उनकी नियति ही घटिया अख़बार पढ़ने और उसमें लिपट कर रह जाने की है। यह तभी बदलेगी जब पाठक हिन्दी के अख़बारों को पढ़ना छोड़ दें। केवल यही समझ जाएँ कि जो अख़बार ले रहे हैं वह घटिया है। जागरण को नहीं जलाएँ। घटिया अख़बार नहीं पढ़ने की आग में ख़ुद को जलाएँ। कल से सब सामान्य हो जाएगा। मुर्दे अपना कफ़न ख़ुद ओढ़ लेंगे।हॉकर जागरण फेंक जाएगा।सांप्रदायिकता अब लज़ीज़ हो चुकी है।
रविश कुमार (NDTV)
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