पत्रकार का मज़ाक़ तो हर एक उड़ा लेता है।लेकिन कोई भी उसकी तकलीफ़ों के बाबत बात नहीं करता। एक पत्रकार को रोज ही अपने को अपग्रेड करते रहना पड़ता है।उसे तो रोज ही इस अपग्रेडेशन की प्रक्रिया से चाहे-अनचाहे जूझना ही पड़ता है। पर अक्सर उसके इस अपग्रेडेशन को नजरंदाज कर दिया जाता है। समाज भी करता है और उस पत्रकार का नियोक्ता भी। वस्तुस्थिति तो यह है कि आमतौर पर एक पत्रकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह एक सुपरमैन है जो लिखे भी अव्वल और अपने प्रोडक्ट को बेचे भी तथा पैसे भी कमा कर लाए। प्रबंधन उसके चारों तरफ कटीले तार लगाता रहता है और उसके अन्य सहकर्मी भी। तब क्या पत्रकार कोई सुपरमैन है? महज़ बीए कर जो सिविल सर्विेसेज में चला गया अथवा जिसने कोई भी सरकारी नौकरी हथिया ली होगी उसने न सिर्फ मुझसे अधिक कमाया होगा बल्कि अधिक लोगों को उपकृत भी किया होगा। मैं तमाम जटिल परिस्थितियों से जूझते हुए देश के एक दिग्गज दैनिक पत्र में कार्यकारी संपादक पद तक पहुँचा। पर उसका प्रतिफल क्या मिला मात्र 58 साल की उम्र में ही रिटायर कर दिया गया।बगैर यह जाने कि मेरे अंदर कितना एनर्जी लेबल शेष है अथवा मेरे अनुभव का कितना लाभ उठाया जा सकता है। जबकि एक मास्टर के रिटायर होने की उम्र 62 है, न्यायाधीश की 65 और गवर्नर तथा अन्य पदों का कहना ही क्या! कुछ साल पहले एक बुज़ुर्ग (88 साल की कमला बेनीवाल) राज्यपाल के लिए तो कुछ संपादकगण भी हाय-हाय कर रहे थे। उनका कहना था कि हाय उस गरीबनी का घर छीन लिया गया। पर क्या कभी उन्होंने अपने ही किसी साथी से पूछा कि रिटायर हो जाने के बाद आपका खर्च-पानी कैसे चलता है? आपको कोई पेंशन मिलती नहीं है तो आप कैसे गुज़र-बसर कर रह रहे हैं? यह सवाल कोई पत्रकार किसी रिटायर पत्रकार से नहीं पूछता और बातें दुनिया भर की करता है जैसे यह दुनिया उनके ऊपर ही टिकी है। ठीक उस कहानी की तरह जिसमें एक कुत्ता एक बैलगाड़ी के नीचे चला जा रहा था यह सोचते हुए कि यह बैलगाड़ी उसी के बूते चल रही है। हकीकत में हिंदी पत्रकार उस दुहाजू की बीवी की तरह है जिसका पति अपने ही घर में दोयम दर्जे की स्थिति में है। पत्रकार कितना अपग्रेड करे लेकिन यह तो बताया जाए कि उसकी सामाजिक सुरक्षा की गारंटी क्या है।
शम्भु नाथ शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार
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