सोशल मीडिया को नियंत्रण में रखने के लिए सरकार ने ऐसे-ऐसे कानून बनाए हैं कि मीडिया कंपनियों को उनका अनुपालन भी नहीं सिखा पाई है या वे समझ नहीं पाई हैं। इस पोस्ट पर बिलावजह ये पर्दा किस काम का? इससे कानून के पालन की औपचारिकता के अलावा कौन सी भलाई हो रही है या सोशल मीडिया के उपयोग के तरीकों का कौन का ज्ञान फैलाया जा रहा है?
इस पोस्ट का शीर्षक ही है, एक फर्जी कतरन और मेरे मन की बात। इसमें गलत क्या है और फेसबुक को क्या शक है? जाहिर है, गलत पोस्ट में नहीं कतरन में है और कतरन का यह फर्जीवाड़ा जिसने किया हो उसके खिलाफ कार्रवाई हो तो हमें ऐसी पोस्ट लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। पर कार्रवाई होगी लिखी हुई पोस्ट का रीच कम करने की (या इस आड़ में उसे और लोकप्रिय करने की, जैसी जरूरत हो)। अगर कुछ गलत है तो गलती करने वाले को पकड़ा जाना चाहिए। उसे रोकना चाहिए।
इसे सबसे पहले किसने पोस्ट किया – पता लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है। कार्रवाई उसके खिलाफ होनी चाहिए। अगर सबसे पहले पोस्ट करने वाले को पकड़ना मुमकिन नहीं है जो शुरू में गलत पोस्ट को प्रचारित करने वालों के खिलाफ कार्रवाई जरूरी है – पर सरकार से संबंधित ऐसे मामलों में कार्रवाई नहीं होती है। ना पहले अपराधी के जरिए अपराध की जड़ तक पहुंचा जाता है और ना प्रचारकों को रोकने-पकड़ने की कोशिश होती है क्योंकि वे भी सिस्टम जी का ही काम कर रहे हैं। इस चक्कर में सरकार जी मजबूत हो रहे हैं और सिस्टम जी का बाजा बज रहा है।
संजय कुमार सिंह
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