बदली, बढ़ी, बिखरी पत्रकारिता और चंदन!
हरिशंकर व्यास
‘धर्मयुग’ मठ के अनुशासन में निकलती पत्रिका वहीं रविवार एक्ट़िविज्म और एजेंडे में खिली हुई पत्रिका। पता नहीं धर्मवीर भारती ने ‘रविवार’ की प्रारंभिक सफलता पर क्या सोचा होगा? उन्हें वह एक छिछोरी पत्रिका समझ आई होगी। मोटे तौर पर मेरा मानना है कि 1980 के वक्त में हिंदी पत्रकारिता तीन धाराओं में बहकी थी। मठ, सत्तामुखी और एक्टिविज्म की तीन धाराएं। इन धाराओं के प्रतिनिधि संपादक धर्मवीर भारती, अक्षय कुमार जैन और एसपी सिंह थे।
‘रविवार’ पत्रिका चढ़ती कला थी क्योंकि जनता राज की राजनारायण, चरण सिंह, मधु लिमये, सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, दोहरी सदस्यता व संजय गांधी की तिकड़मों से चौतरफा राजनीतिक दिलचस्पी और सनसनी ही सनसनी। शुरू हुई एजेंडा केंद्रित पत्रकारिता। उसी से संपादकों को भी फिर पत्रकारिता से राजनीति का लांचपैड बनता नजर आया।
‘रविवार’ के एसपी सिंह, उदयन शर्मा से लेकर ‘दिनमान’, ‘माया’, ‘ब्लिट्ज’ जैसी पत्रिकाओं ने तब वह धमाल बनाया, जिसके झागों में खूब मजा था मगर हिंदी पत्रकारिता बिखरती और भटकती हुई। पाठकों की संख्या बनी और सत्ता में हिंदी का महत्व भी बढ़ा। दिल्ली और प्रदेशों के भाषायी संपादकों-पत्रकारों को भी नेताओं के बीच रूतबा बनाने का चस्का हुआ वहीं नेताओं को मीडिया के उपयोग का नया भान।
उधर मीडिया मालिकों में उन संपादकों-पत्रकारों की उपयोगिता समझ आई, जिनका नेताओं के साथ उठना-बैठना था। यह सब संभवतया इमरजेंसी से पहले नहीं था। अपना मानना है कि अक्षय कुमार जैन, धर्मवीर भारती, रतनलाल जोशी जैसे पुराने संपादकों की नियुक्ति बिना सियासी पहचान के हुई थी। कोई अपने को कितना ही प्रधानमंत्री या मंत्री विशेष का लाड़ला बताता था पर वह उस नाते मालिक से संपादक नहीं बना था।
संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार
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