बांदा जिले के छोटे से नरैनी कस्बे से निकलकर जिला मुख्यालय और फिर राष्ट्रीय राजधानी में कलम का लोहा मनवाने वाले अरुण खरे ने संक्षिप्त बीमारी के बाद आज दुनिया को अलविदा कह दिया। गोरे थे सो देखने मे बिल्कुल अंग्रेज लगते थे। बाजदफे लोग धोखा भी खा जाते थे। पाठा के जंगलों में सूखे की रिपोर्टिंग करते हुए ऐसे कई वाक्ये हुए। मुफलिसी से लेकर शाहखर्ची तक का लंबा साथ रहा। ट्रेन में बिना टिकट भी चले और टिकट लेकर एसी फर्स्ट क्लास में भी। बीते दिन आंखों के सामने सपने के मानिंद तैर रहे हैं। कमासिन में हम दोनों ने एक औरत के सती होने का खौफनाक दृश्य देखा। सिगरेट बहुत पीते थे, पीते ही नहीं बल्कि चेनस्मोकर थे। हम उन्हें ज्यादा सिगरेट पीने से मना करते और वह हमें रजनीगंधा खाने से मना करते। दैनिक कर्मयुग प्रकाश के दिनों में वह पहला पेज देखते थे और हम शहर/ग्रामीण। कभी कहते कि आकाशवाणी वाले धीमी गति के समाचार पत्रकारों को काहिल बनाने के लिए चलाते हैं, हम कहते कि नहीं, यह तो पत्रकारों के प्रति उनकी सदाशयता है। कपड़े की तरह उन्होंने अखबार की नौकरियां बदलीं। तमाम झंझावातों के बावजूद हमारी बरात में वह गए, उनकी बरात में हम। बहुत ही नेक, शरीफ और सह्रदय व्यक्ति थे। मिलनसारिता के तो कहने ही क्या! रिक्शेवाले या भिखारी को मनमाना पैसा दे देना उनकी फितरत थी, भले ही अपनी खातिर कुछ न बचे। तय हुआ था कि जल्दी वह लखनऊ आकर कुछ दिनों के लिए घर में डेरा जमा देंगे, वायदा अधूरा रह गया। शायद उनका अंतिम डेरा बैकुंठ लोक में फिक्स हो गया था पर सहज कोई जान नहीं पाया। समय और साधन की विवशता है अन्यथा अंतिम दर्शन को जरूर आता। परमात्मा इस असीम वेदना को सहन करने की भाभी जी और बच्चों को अपार शक्ति दें। अरुण जी आप बहुत याद आएंगे। अंतिम प्रणाम।
राजू मिश्र वरिष्ठ पत्रकार
var /*674867468*/