मऊरानीपुर का खजाना लुट गया
वल्लभ सिद्धार्थ नहीं रहे। यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे अचानक चले गए। पिछले 1 वर्ष या उससे अधिक समय से वे खुद को मृत्यु के स्वागत के लिए तैयार कर रहे थे। सुनने की शक्ति कमजोर हो गई थी, लेकिन उन्होंने मशीन नहीं लगाई। देखने की शक्ति क्षीण हो रही थी, उसे होने दिया, ऑपरेशन नहीं कराया। लिखने की क्षमता धीरे-धीरे कम होती गई उसे हो जाने दिया। 85 वर्ष की उम्र के साथ शरीर के अंग जिस तरह से थकान से भर जाने चाहिए, उन्होंने भरने दिए। अपनी सारी चेतना को मस्तिष्क में लगा दिया। उनके चिंतन की धार अंत अंत तक कमजोर नहीं हुई।
मऊरानीपुर शहर उन्हें एक ऐसे बुजुर्ग के तौर पर जानता है जो साहित्यकार हैं। लेकिन बाहर की दुनिया जानती है कि वह हिंदी साहित्य को कितना बड़ा खजाना देकर गए हैं। अगर मौलिक लेखन की बात करें तो इमरजेंसी के दौर में आया उनका कहानी संग्रह “ब्लैकआउट” और “महापुरुषों की वापसी” अपने जमाने में खासा चर्चित था। उनका उपन्यास “कटघरे” साहित्य अकादमी के लिए चुनी जाने वाली अंतिम दो प्रतियों तक पहुंचा था।
जिन्हें आज भी बुंदेलखंड के कस्बाई जीवन को और उसके भीतर रिसते नरक कुंड को समझना है, उन्हें वल्लभ सिद्धार्थ का कटघरे उपन्यास जरूर पढ़ना चाहिए। इस उपन्यास में एक बूढ़ा पात्र उपन्यास की नायिका से कहता है कि “बिट्टी अगर सब अपने अपने हिस्से का अन्याय सहना सीख लें तो दुनिया आसान हो जाएगी।” यह कितना निराशापूर्ण वाक्य है, लेकिन इस पतनशील समय का यथार्थ भी है।
अपनी जवानी के दिनों में वे धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और सारिका जैसी पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपते थे।
करीब 30 साल पहले उन्होंने मौलिक लेखन से विदा लेकर खुद को विश्व साहित्य के हिंदी अनुवाद में लगा दिया। ग्रीक ट्रेजडीज से लेकर चेखव, दोस्तोवस्की सहित रूस का शायद ही कोई ऐसा महान साहित्यकार रहा हो जिसकी रचना का उन्होंने हिंदी में अनुवाद ना किया हो। अनुवाद के मामले में उनकी लिस्ट कई दर्जन किताबों तक जाएगी। आलोचक यह जरूर कह सकते हैं कि कई मामलों में उन्होंने अनुवाद का संक्षिप्तीकरण किया। लेकिन यह बात उन्होंने घोषित तौर पर की,कोई दबे छुपे तौर पर नहीं।
उनसे अंतिम मुलाकात कोई 1 वर्ष पूर्व हुई थी, उस समय वह महाभारत पढ़ रहे थे। उन्होंने बड़ी शिद्दत से बताया कि असल में महाभारत में धृतराष्ट्र के अलावा सभी अंधे थे क्योंकि धृतराष्ट्र को हम अंधा समझते हैं, असल में महाभारत की पूरी कथा और पूरा युद्ध उसी की सत्ता कामना का परिणाम था। और भी कुछ बातें हुई थी।
एक बात और कहूंगा कि वल्लभ जी के पास ज्ञान के साथ ही पुस्तकों का भी विपुल भंडार था। अगर उनके परिवार की इच्छा हो तो शहर की किसी लाइब्रेरी में या किसी विद्यालय को अपनी लाइब्रेरी में उन किताबों को रखना चाहिए। क्योंकि ये किताबें ना सिर्फ वल्लभ जी की धरोहर हैं बल्कि हमारे शहर की विरासत हैं। मैं यह बात इसलिए कहता हूं कि कवि और साहित्यकार का साम्राज्य उसके जीवन के बाद भी चलता है, जबकि राजा का राज तो सिर्फ उसके जीवन तक होता है। अपने जीवन काल में सम्राट अकबर महान बादशाह थे और पूरे हिंदुस्तान पर उनका राज था। लेकिन उन्हीं के समय में संत तुलसीदास भी थे जिनका साम्राज्य राजा की तरह तो नहीं चलता था, लेकिन आज 400 साल बाद भी वह भारतीय मानस पर राज करते हैं। जबकि अकबर इतिहास की विषय वस्तु हैं।
वल्लभ जी के संघर्षपूर्ण जीवन और शानदार अवसान को प्रणाम। उनकी विदाई के साथ मऊरानीपुर की मेधा का खजाना लुट गया है।
विनम्र श्रद्धांजलि
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